New Delhi: बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कांग्रेस के आठ लोकसभा सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन और सदन की अवमानना का नोटिस दिया है. यह नोटिस लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला तक पहुंच चुका है. जानकारी के अनुसार अध्यक्ष ने इसे गंभीर विषय मानते हुए जांच की प्रक्रिया शुरू कर दी है. संसद के अंदर माहौल पहले से ही गरमाया हुआ है और अब यह मामला सदन की आचार संहिता, मर्यादा और अनुशासन को लेकर एक बड़ी राजनीतिक बहस बन गया है. दुबे ने अपने पत्र में कहा है कि लोकसभा की कार्यवाही के दौरान विपक्षी सांसदों का व्यवहार लोकतांत्रिक मर्यादाओं से परे था और इसे अनदेखा करना सदन की छवि के लिए खतरनाक होगा.
कौन-कौन सांसद निशाने पर
निशिकांत दुबे ने अपने नोटिस में कांग्रेस के आठ सांसदों को नामजद किया है. इनमें हिबी ईडन, डीन कुरियाकोस, एस मुरासोली, के गोपीनाथ, शशिकांत सेंथिल, शफी परम्बिल, एस वेंकटेशन और जोतिमणि शामिल हैं. दुबे का कहना है कि ये सांसद सदन के अंदर अनुशासन तोड़ते हुए वेल तक पहुंच गए, उन्होंने टेबलों पर चढ़कर नारेबाजी की और चर्चा में खलल डाला. उनका आरोप है कि यह सिर्फ सामान्य विरोध नहीं था, बल्कि एक व्यवस्थित तरीके से चल रही कार्यवाही को नुकसान पहुंचाने की कोशिश थी. नियमों के अनुसार, कोई भी सांसद मंत्रियों या अधिकारियों को उनके दायित्व निभाने से नहीं रोक सकता, लेकिन दुबे का दावा यही है कि कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री को जवाब देते समय व्यवधान डालकर इन सांसदों ने विशेषाधिकारों का उल्लंघन किया.
विवाद कैसे शुरू हुआ
विवाद की शुरुआत विकसित भारत-जी राम जी विधेयक पर चर्चा के दौरान हुई. यह विधेयक 20 साल पुराने मनरेगा कानून की जगह लेने के लिए सरकार द्वारा पेश किया गया है. सरकार का दावा है कि नया कानून रोजगार की गारंटी को और प्रभावी, पारदर्शी और समयानुकूल बनाएगा. लेकिन विपक्ष का मानना है कि मनरेगा की मूल आत्मा से छेड़छाड़ की जा रही है और ग्रामीण रोजगार सुरक्षा कमजोर होगी. जब कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान विधेयक पर विपक्ष के सवालों का जवाब दे रहे थे, तभी विरोध तेज हो गया. विपक्षी सांसद वेल तक आ गए, उन्होंने विधेयक की प्रतियां फाड़ीं और चर्चा को रोकने के लिए सदन के आसन के नजदीक जाकर प्रदर्शन किया. इसी घटनाक्रम के बाद दुबे ने इसे अनुशासनहीनता का चरम बताते हुए नोटिस सौंप दिया.
दुबे का आरोप क्यों गंभीर माना जा रहा है
विशेषाधिकार हनन संसद की उन स्थितियों में माना जाता है, जब कोई व्यक्ति या समूह सांसदों, सदन या उसके अधिकारियों को उनके अधिकारों या कर्तव्यों से रोकता है. दुबे ने आरोप लगाया है कि विपक्ष के प्रदर्शन में वह सीमा पार हो गई जहां विरोध अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा, बल्कि कार्यवाही बाधित करने का साधन बन गया. उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष को सौंपे पत्र में लिखा कि मंत्री और अधिकारी दोनों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों से रोका गया, और यह संसद की सामूहिक गरिमा को चोट पहुंचाने वाला व्यवहार है. दुबे ने यह भी कहा कि अगर संसद में इस तरह के व्यवहार को सामान्य मान लिया गया तो आने वाले समय में सदन की संस्कृति और परंपरा को बचाना मुश्किल हो जाएगा.
लोकसभा अध्यक्ष के विकल्प क्या
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला अब इस नोटिस की जांच करते हुए संबंधित सांसदों से स्पष्टीकरण मांग सकते हैं. दूसरा विकल्प है कि यह पूरा मामला विशेषाधिकार समिति के पास भेजा जाए, जो साक्ष्य, दस्तावेज और कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट देगी. यदि समिति को लगता है कि आरोप साबित होते हैं तो रिपोर्ट के आधार पर सदन में कार्रवाई प्रस्तावित की जाती है. ऐसे मामलों में निलंबन, चेतावनी या कड़ी फटकार जैसी कार्रवाई संभव है. संसद के इतिहास में कई बार विशेषाधिकार हनन के तहत सांसदों को निलंबन का सामना करना पड़ा है. इसलिए यह मामला तकनीकी होने के साथ-साथ राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील माना जा रहा है.
विधेयक पर सियासत और असहमति
विचारों का मतभेद सिर्फ प्रक्रिया को लेकर नहीं, बल्कि खुद कानून की प्रकृति पर है. विपक्ष का कहना है कि मनरेगा ग्रामीण गरीबों के लिए सुरक्षा ढांचा रहा है और इसे बदलने का निर्णय व्यापक चर्चा और समीक्षा के बाद होना चाहिए था. उनकी दलील है कि नया कानून मनरेगा जैसी गारंटी नहीं देता और इससे मजदूरों को रोजगार खोजने में मुश्किलें आएंगी. सरकार इसके उलट कहती है कि नया मॉडल ज्यादा आधुनिक और डिजिटल-आधारित होगा, जिससे पारदर्शिता बढ़ेगी. इस विधेयक को लेकर संसद के बाहर भी राजनीतिक बयानबाजी जारी है और रणनीतिक रूप से कांग्रेस इसे केंद्र सरकार की ग्रामीण नीतियों पर असफलता बताने का मुद्दा बना रही है.
आगे का राजनीतिक असर
विशेषाधिकार हनन का यह मामला सिर्फ आठ सांसदों तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक राजनीति का संकेत भी देता है. अगर स्पीकर की जांच के बाद मामला समिति तक जाता है और सिफारिश के अनुसार किसी भी सांसद पर कार्रवाई होती है, तो विपक्ष इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई कहकर और आक्रामक होगा. वहीं सरकार इसे अनुशासन और सदन की मर्यादा का सवाल बताएगी. आने वाले हफ्तों में जब अगला सत्र नजदीक आएगा, यह विवाद एक संदर्भ बिंदु बनकर सामने आएगा. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद विपक्ष की एकजुटता, कांग्रेस की रणनीति और भाजपा की संसदीय सख्ती—तीनों को प्रभावित करेगा. इसलिए इस मुद्दे की परिणति किसी एक निर्णय तक सीमित न होकर संसद की भविष्य की कार्यशैली पर भी असर डाल सकती है.



