बीजेपी में सीता, गीता, लोबिन, बाबूलाल का खेल खत्म !

चारों नेताओं के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता है कि इन्हें अगली बार बीजेपी से चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा.

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रांची : झारखंड में विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद बीजेपी के कई नेताओं का राजनीतिक करियर अंतिम पड़ाव पर है. आने वाले समय में पार्टी के कुछ टॉप लीडर्स दरकिनार किये जाएंगे. दूसरे दलों से इंपोर्ट कर लाये गये कई नेता भी ठिकाने लगाये जाएंगे. कुछ नेता ठिकाने लगाये जाने से पहले ही अपने पुराने घर में वापसी कर लेंगे. चुनाव में बीजेपी से हारे हुए कुछ बड़े नेता तो अपना राजनीतिक करियर बचाने के लिए घर वापसी की जुगाड़ में लग भी गये हैं. अभी सबसे बड़ा सवाल यह है कि जेएमएम से बीजेपी में आये लोबिन हेंब्रम, सीता सोरेन, बाबूलाल सोरेन और कांग्रेस से आई गीता कोड़ा का क्या होगा. क्या बीजेपी इन्हें आगे भी ढोयेगी या फिर इन्हें दरकिनार कर दिया जाएगा. चारों नेताओं के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता है कि इन्हें अगली बार चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा. बहुत ज्यादा हुआ तो संगठन में पद देकर इन्हें लॉलीपॉप थमा दिया जाएगा. वैसे प्रदेश में बीजेपी का इतिहास उठाकर देख लीजिए तो पता चलेगा कि परायी पार्टी से आये जो दिग्गज यहां नहीं चले उन्होंने या तो वापसी कर ली या फिर हाशिये पर चले गये.

 

सीता सोरेन : सोरेन परिवार की बड़ी बहू सीता सोरेन का कुछ महीने पहले तक बड़ा रुतबा था. विधायक हुआ करती थीं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की बड़ी भाभी भी हैं, सो रह-रह कर हेमंत सोरेन और संगठन को भी हड़काती रहती थीं. बात-बात पर रूठ जाया करती थीं, लेकिन फिर मनाने पर मान भी जाती थीं. जब से बीजेपी में गई हैं बस संघर्ष ही कर रही हैं. अपना राजनीतिक करियर बचाने. दोनों बेटियों को राजनीति में स्थापित करने और बीजेपी की पहली पंक्ति की लीडर बनने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं. पहले लोकसभा चुनाव हार गईं. फिर विधानसभा चुनाव में भी हार का मुंह देखना पड़ा. लोकसभा चुनाव में हार का ठीकरा बीजेपी के प्रदेश नेताओं पर फोड़ दिया था. खूब नाराजगी जताईं, लेकिन कोई मनाने नहीं गया. थक-हारकर खुद मान गईं. फिलहाल जामा से विधानसभा चुनाव हारने के बाद अबतक उनके संगठन से रूठने की खबर नहीं आई है. अब जरा सीता सोरेन के चुनाव में प्रदर्शन की भी बात हो जाए. बीजेपी ने सीता सोरेन को जब पार्टी में शामिल कराया था तब उसे ऐसा लग रहा था मानो तुरुप का पत्ता उसके हाथ लग गया, लेकिन जब सीता पहले दुमका फिर जामताड़ा से चुनाव हारीं तो बीजेपी टेंशन में आ गई. सीता हजार-दो हजार वोट से हारतीं तो बीजेपी पचा लेती, लेकिन वह तो इरफान अंसारी से 43676 वोट से चुनाव हार गईं. अब सीता और संगठन सफाई दे रही है कि हारे हैं तो क्या हुआ 2019 के मुकाबले बीजेपी का वोटिंग प्रतिशत तो बढ़ा है. चलिए मान लेते हैं वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन कितना ? दो फीसदी से भी कम. क्या बीजेपी इस बात को हजम कर पाएगी ?

 

गीता कोड़ा : अब बात करते हैं गीता कोड़ा की. 2014 में जगरनाथपुर विधानसभा सीट से विधायक रहीं. 2019 में सिंहभूम लोकसभा सीट से कांग्रेस की सांसद रहीं. 2019 के विधानसभा चुनाव में कोल्हान में बीजेपी का सूपड़ा साफ होने के बाद बीजेपी को वहां अपना कोई मजबूत नेता नजर नहीं आ रहा था. बीजेपी से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए दर्जन भर नेता सेटिंग में लगे थे, लेकिन बीजेपी को अपने किसी नेता पर भरोसा नहीं हुआ. बीजेपी के सामने तो बस दो ही चेहरे थे. पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और सांसद गीता कोड़ा. बीजेपी के रणनीतिकारों को लगा था कि अगर दोनों पति-पत्नी बीजेपी में आ गये तो सिंहभूम सीट को बीजेपी चुटकी बजाते ही जीत जाएगी. बीजेपी का सपना सच हुआ. थोड़ी ना-नुकुर के बाद कोड़ा दंपति बीजेपी में आ गये. बीजेपी ने गीता कोड़ा को सिंहभूम लोकसभा सीट से उम्मीदवार बना दिया. रिजल्ट आया तो बीजेपी के होश उड़ गये. गीता कोड़ा जेएमएम से 168402 वोट से चुनाव हार चुकी थीं. इसके बाद विधानसभा चुनाव आया. जगन्नाथपुर विधानसभा सीट से कई दावेदार आये, लेकिन पार्टी ने गीता कोड़ा को कैंडिडेट बनाया. इस बार भी गीता कोड़ा ने बीजेपी को निराश कर दिया. कांग्रेस के सोनाराम सिंकु से 7383 वोट से चुनाव हार गईं. अब सवाल ये उठता है कि क्या अब तीसरी बार भी बीजेपी गीता कोड़ा पर दांव खेलेगी या फिर अगले चुनावों में बीजेपी का चेहरा बदल जाएगा. सवाल यह भी है क्या बीजेपी से दो-दो चुनाव हारने के बाद भी गीता कोड़ा यहीं रहेंगी या फिर कांग्रेस में वापसी के राह तलाशेंगी.

 

लोबिन हेंब्रम : विधानसभा चुनाव से पहले जब लोबिन हेंब्रम झामुमो में थे तब उनका अलग रुतबा था. झामुमो में थे काफी धाक थी. सीनियर लीडर थे. झामुमो से उब गये तो पार्टी और पार्टी नेताओं के खिलाफ आग उगलने लगे. बाहर का रास्ता देखना पड़ा. फिर बीजेपी में शामिल हुए. लोबिन और बीजेपी दोनों को यही लगा कि बोरियो विधानसभा जीतना आसान होगा, लेकिन वहां लहर बीजेपी के खिलाफ चली. इस लहर में बोरियो से सीटिंग विधायक होने के बाद भी लोबिन बुरी तरह चुनाव हारे. बीजेपी के धनंजय सोरेन ने 19273 वोट से लोबिन को हरा दिया. चुनाव हारने के बाद लोबिन बीजेपी की हार वाली समीक्षा बैठक में मुंह लटकाये आये हुए थे. लोबिन उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं जहां वे राजनीतिक करियर बनाने के लिए और और स्ट्रगल करने की हालत में नहीं हैं. फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता है. लोबिन दादा जिस उम्मीद से बीजेपी में आये थे उसी उम्मीद में झामुमो में वापसी करते उन्हें देर नहीं लगेगी.

 

बाबूलाल सोरेन : पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन और उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन विधानसभा चुनाव से पहले झामुमो छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे. चंपई सोरेन के बीजेपी में शामिल होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ बाबूलाल सोरेन का माना जाता है. चंपई के साथ बाबूलाल मरांडी भी बीजेपी में शामिल हुए और बीजेपी ने दोनों को विधानसभा का टिकट दिया. बीजेपी ने चंपई सोरेन को हेमंत सोरेन के खिलाफ बीजेपी का चेहरा बनाकर संथाल और कोल्हान के आदिवासियों को साधने की कोशिश की, लेकिन चुनाव में चंपई का कोई जादू नहीं चला. 28 आदिवासी सीटों में से सिर्फ एक अपनी ही सीट चंपई चुनाव में बचा पाये. पुत्र बाबूलाल सोरेन घाटशिला में बुरी तरह चुनाव हार गये. रामदास सोरेन ने बाबूलाल सोरेन को 22446 वोट से चुनाव हराया. जबकि 2019 के विधानसभा चुनाव में घाटशिला में बीजेपी की इतनी बुरी हार नहीं हुई थी रामदास सोरेन पिछली बार बीजेपी से सिर्फ 6724 वोट से चुनाव जीते थे. मतलब बाबूलाल सोरेन को चुनाव लड़वाने से बीजेपी को घाटशिला में काफी नुकसान उठाना पड़ा. जाहिर है दोबारा बाबूलाल को इस सीट से उतारकर बीजेपी इतना बड़ा जोखिम उठाना नहीं चाहेगी.

 

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